क्या मोदी सरकार बेरोजगारी की समस्या हल करने में विफल रही है?
बढ़ती जनसंख्या और आजादी के बाद रोजगार के लिए कोई ठोस नीति नहीं अपनाने से बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप ले रही है। इस समस्या को विपक्षी नेता और जटिल बना रहे हैं। इन दिनों विपक्षी नेता बेरोजगारी के मुद्दे को जोर-शोर से उठा रहे हैं। इन नेताओं का कहना है, ‘‘मोदी सरकार बेरोजगारी की समस्या हल करने में विफल रही है। बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है।’’ विपक्ष की इस बात को हवा देने का काम सेकुलर पत्रकार करते हैं और वे इस मुद्दे पर देश के युवाओं को भड़का रहे हैं, जबकि तथ्य कुछ और ही कह रहे हैं। सच तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेरोजगारी को दूर करने के लिए अनेक कदम उठा रहे हैं। बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है, इसको कोई नकार नहीं सकता, लेकिन बेरोजगारी क्यों बढ़ रही है, इस पर भी ध्यान देना होगा। एक अनुमान के अनुसार देश में हर महीने लगभग 8,00000 युवा रोजगार पाने के लिए मैदान में आ रहे हैं। इतने लोगों को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती। इसलिए मोदी सरकार इन युवाओं को उद्यम लगाने और स्वरोजगार अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। इसके लिए उन्हें कर्ज भी मुहैया करा रही है। सरकार इन युवाओं को ‘मेक इन इंडिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ की तरफ मोड़ने का प्रयास कर रही है। ऐसा प्रयास आजादी के बाद किसी भी सरकार ने नहीं किया था। यदि पहले ऐसे प्रयास होते तो बेरोजगारी इस कदर नहीं बढ़ती।
हमें यह भी समझना होगा कि बेरोजगारी केवल भारत की समस्या नहीं है। दुनिया के सभी 240 देशों (इनमें से 195 देशों को यूएनओ से मान्यता मिली हुई है) में कुछ समस्याएं समान और शाश्वत हैं। जैसे- गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, प्रदूषण, किसानों का शोषण, महिला उत्पीड़न, अमानवीय भेदभाव (दास प्रथा, रंगभेद, जातिभेद, तानाशाही) इत्यादि। जाहिर है कि इन समस्याओं से भारत भी अछूता नहीं है। दुर्भाग्य से इन समस्याओं के समाधान के लिए सरकारों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर 2014 तक कोई ठोस कार्य नहीं किया। मई 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इन समस्याओं को दूर करने के लिए अनेक कदम उठाए गए हैं।
बेरोजगारी केवल भारत की समस्या नहीं है। दुनिया के सभी 240 देशों (इनमें से 195 देशों को यूएनओ से मान्यता मिली हुई है) में कुछ समस्याएं समान और शाश्वत हैं जैसे- गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, प्रदूषण, किसानों का शोषण, महिला उत्पीड़न, अमानवीय भेदभाव इत्यादि। इन समस्याओं से भारत भी अछूता नहीं है। दुर्भाग्य से इन समस्याओं के समाधान के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर 2014 तक सरकारों ने कोई ठोस कार्य नहीं किया
कुछ लोग सरकारी नौकरी नहीं मिलने के लिए आरक्षण व्यवस्था को दोषी ठहराते हैं। हकीकत तो यह है कि एक अदद सरकारी नौकरी में कुछ भी नहीं रखा है। आप एक पल के लिए सोचिए, अगर सारी सरकारी नौकरियां दलितों और पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित हो जाएं, तो क्या तब भी सभी दलितों और पिछड़ों को रोजगार मिल जाएगा? या फिर अगर आरक्षण रातों-रात समाप्त हो जाए, तो भी क्या सामान्य वर्ग के सभी लोगों को रोजगार मिल जाएगा? उत्तर यही है कि नहीं। हर महीने लाखों युवाओं को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती। जिस तरह से आबादी बढ़ रही है, उस अनुपात में सरकारी नौकरी है ही नहीं। उदाहरण के लिए संघ लोकसेवा आयोग की सिविल सेवा को ले सकते हैं। सिविल सेवा की 2019 की परीक्षा के लिए 9,50,000 आवेदन जमा हुए थे। इनमें से 5,00,484 छात्रों ने प्रारंभिक परीक्षा दी और केवल 10,419 छात्र ही उत्तीर्ण हुए। इनमें से केवल 758 उम्मीदवारों का चयन हुआ। यानी 4,99,726 उम्मीदवार असफल रहे। इनमें से सवर्ण वर्ग के उम्मीदवार कहेंगे कि वे आरक्षण के कारण आईएएस या आईपीएस नहीं बन पाए। इसी तरह आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार यह कहेंगे कि वे सवर्णों के कारण पिछड़ गए। इनकी इस मनोदशा का लाभ कुछ लोग उठाते हैं और उन्हें भड़काते हैं।
यही हाल रेलवे का भी है। हजारों रिक्त पदों के लिए करोड़ों आवेदन आते हैं। इस वर्ष महामारी के कारण रेलवे की परीक्षाएं नहीं हो पाई हैं। उम्मीद है कि दिसंबर से आॅनलाइन परीक्षा शुरू हो जाएगी। पहले ऐसी परीक्षाओं में भ्रष्टाचार और अव्यवस्था थी, जिसे मोदी सरकार द्वारा अब समाप्त किया जा रहा है। ग्रुप ‘सी’ और ‘डी’ के लिए कोई साक्षात्कार नहीं होगा। पहले लिखित परीक्षा में धांधली एवं साक्षात्कार के नाम पर खेल हो जाता था। भाई-भतीजावाद चरम पर था। जिसकी पहुंच होती थी, उसकी नौकरी लग जाती थी। इस कारण योग्य उम्मीदवारों को नौकरी नहीं मिल पाती थी। एक अध्ययन के अनुसार राजस्थान में अभी लगभग 6,50,000 सरकारी कर्मचारी हैं। इनमें से बहुत सेवानिवृत्त भी हो रहे हैं या अन्य किसी करण से नौकरी छोड़ भी रहे हैं। इस संख्या को बनाए रखने के लिए हर वर्ष 22-25,000 नई भर्ती चाहिए। क्या यह संभव है? शायद नहीं।
इस समय लगभग 2,15,00,000 सरकारी कर्मचारी भारत में काम कर रहे हैं। यानी पूरे भारत में हर माह केवल 60,000 भर्ती ही सरकारी नौकरी के लिए हो सकती है, जबकि हर माह 8,00000 युवाओं को नौकरी चाहिए।
यह भी विदित हो कि केंद्र और राज्य - दोनों में सरकारी कर्मचारियों के वेतन पर 10.18 खरब रुपए खर्च होते हैं, जो देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 8.15 प्रतिशत है। आयु में वृद्धि होने के कारण वेतन से अधिक व्यय पेंशन पर हो रहा है। एक आंकड़े के अनुसार 2018 में रेल यात्रा के लिए खरीदे गए 1,000 रुपए के प्रत्येक टिकट पर 670 रुपए कर्मचारियों के वेतन और पेंशन पर खर्च किए गए।
यह सब बताने का यह अर्थ नहीं है कि युवा सरकारी नौकरी के लिए प्रयास न करें। प्रयास जरूर करें। मिल गई तो बहुत अच्छा और नहीं मिली तो निराश होने की जरूरत नहीं है। अपने जीवन-यापन के लिए और कुछ राह निकालें, न कि सरकारी नौकरी के लिए अपना जीवन व्यर्थ कर दें। जीविका के लिए कोई भी व्यवसाय या कार्य छोटा नहीं होता। इसलिए आज के युवाओं को परिस्थितियों को समझ कर अपने भविष्य का निर्णय समझदारी से लेना चाहिए। मोदी सरकार पर भरोसा कर उसकी योजनाओं का लाभ उठाएं। अपनी क्षमताओं का आत्मविश्वास के साथ उपयोग करें। आज का आत्मनिर्भर युवा ही आत्मनिर्भर भारत का निर्माण कर सकता है। एक सुंदर भविष्य आपकी बाट जोह रहा है।
लेबल: संपादकीय
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