रविवार, 15 मार्च 2020

कानपुर के गङ्गा-मेला का इतिहास

यह बात उस समय की है जब अँग्रेज़ों का शासन था तथा कानपुर क्रान्तिकारियों की कर्मस्थली हुआ करता था। चन्द्रशेखर आज़ाद व अन्य क्रान्तिकारी यहाँ अपना अज्ञातवास काटने आते थे। शहर के तमाम प्रबुद्ध लोग राजनैतिक चेतना की अलख जगाने में लगे हुऐ थे। गणेश शंकर विद्यार्थी भी यहाँ अक्सर बैठकें करते थे। _’झण्डा ऊँचा रहे हमारा’_ के रचयिता श्री श्यामलाल गुप्ता पार्षद* के साथ तमाम व्यापारी एवं उद्योगपति भी क्रान्तिकारियों की भरपूर सहायता करते तथा शरण भी देते थे। इस कारण अँग्रेज़ों की नज़र क्रान्तिकारियों तथा उनके संरक्षणदाताओं व शुभचिन्तकों पर डटी रहती थी। जहाँ कहीं आठ-दस व्यापारियों व संभ्रान्त नागरिकों की बैठक होती पुलिस वहाँ आ धमकती। 


यह बात सन् 1925 की है, होली का दिन था। रात को होली जलाने की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी थी। व्यापारियों, साहित्यकारों व प्रबुद्ध नागरिकों की एक बैठक बुलाई गयी जिसमें शहर के आठ बड़े गणमान्य व्यक्ति जो कि 'हटिया बाजार' से सम्बद्ध थे जिनमें गुलाब चंद सेठ, बुद्धुलाल महरोत्रा, हामिद ख़ाँ, जागेश्वर त्रिवेद्धी, बालकृष्ण शर्मा (नवीन), रधुवर दयाल, श्यामलाल गुप्ता (पार्षद) तथा पं• मुंशीराम शर्मा (सोमजी) होलिका दहन की तैयारी में शामिल थे। अँग्रेज़ी हुकूमत को जब इस बात की जानकारी हुई तो तुरन्त सक्रिय हो गयी, आखिर शहर के इतने बड़े नाम एकसाथ एकत्र क्यों हो रहे हैं! पुलिस पहुँची तथा सभी को हुकूमत के खिलाफ साज़िश रचने के आरोप लगाकर सरसैया घाट के पासवाली जेल में डाल दिया गया तथा त्योहार बीत जाने के आठ दिन बाद छोड़ा गया। उस दिन 'अनुराधा नक्षत्र' भी था। शहर के लोगों ने बाजार व प्रतिष्ठान तैयारियों के मद्देनज़र बन्दकर रखे थे तथा उनकी अगवानी के लिए जेल के बाहर हज़ारों की संख्या में व्यापारी समुदाय मौजूद था। 


जेल से रिहा होने के बाद इन सबको सरसैया घाट स्नान के लिए ले जाया गया तथा जो होली, होलिका दहन के बाद नहीं खेली जा सकी थी, वह उस दिन सरसैया घाट तट पर गुलाल लगाकर खेली गयी। तभी से होलिका दहन से लेकर किसी भी दिन पड़ने वाले 'अनुराधा नक्षत्र' की तिथि तक कानपुर में होली खेली जाती है। अनुराधा नक्षत्र के दिन कानपुर का रंग कुछ और ही दिखाई देता है। जाति, वर्ग, अमीर-गरीब की दीवारें गिर जाती हैं, तथा दोपहर तक पूरा शहर होली में सराबोर हो जाता है। इसके उपरांत आज भी शाम के समय सरसैया घाट के तट पर ही उन आज़ादी के मतवालों की याद को जीवित रखते हुए शहरवासी होली गङ्गा मेला मिलन समारोह का वृहद आयोजन करते हैं।


इस होली की अगुवाई कालांतर में सेठ गुलाबचंद किया करते थे, अब उनके बाद वह कमान उनके पुत्र 78 वर्षीय सेठ मूलचंद (मुल्लू बाबू) ने यह बागडोर सँभाल रखी है। प्रत्येक वर्ष हटिया बाजार ही मेले की तिथि को घोषित करता है, एवं मेले में पूरा शहर शामिल होता है। शासन, प्रशासन, व्यापारी एवं प्रबुद्ध वर्ग के साथ सामाजिक संगठन एवं आम शहरी भी मेले में अपनी भागीदारी निभाते हैं।


यह एक ऐसा लोकोत्सव है जिसमें सही मायने में पूरा शहर शामिल होता था।


दुःख की बात है कि आजकल लोग इस परम्परा के पीछे के इतिहास को भूलते जा रहे हैं। हमारा कर्तव्य है कि अपने उत्सवों के पीछे के गौरवशाली इतिहास को जानें तथा उनमें सक्रिय भागीदारी निभायें। 


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